एक है भाषा मेरे देश की ,नाम है उसका हिंदी
माथे पर सज कर बन जाये, वो आनन की बिंदी।
कण्ठ वासिनी भाव दर्शिनी,
मुख से मुख की पथिका।
विचार वीथिका की प्रवासिनी,
अतुल निधि की मलिका ।
बावन अक्षर सेवक इसके ,
सोलह स्वर की कलिका ।
ऐसी भाषा मेरे देश की, नाम है जिसका हिंदी
माथे पर सज कर बन जाये, वो आनन की बिंदी।
रूप सलोना लगता उसका,
घर घर की वह गृहिणी
बंगाली उड़िया गुजराती,
पंजाबी बहु वर्णी ।
तमिल तेलगु कन्नड़ अवधी।
इसकी सखी सहेली
मोहक भाषा मेरे देश की
नाम है उसका हिंदी
माथे पर सज कर बन जाये,
वो आनन की बिंदी।
मन आंगन में महके खुशबू
ये बहुजन की भाषा ।
स्वाभिमान की शान बढ़ाये,
सुख दुख की परिभाषा।
सहज सरल और' सुघड़ सलोनी
जन मन की अभिलाषा।
मीठी भाषा मेरे देश' की ,
नाम है उसका हिंदी।
माथे पर सज कर बन जाये,
वो आनन की बिंदी।
डॉ चन्द्रावती नागेश्वर
रायपुर छ ग
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सभी साहित्य प्रेमी आत्मीय जनों को रंगोत्सव की सतरंगी बधाइयाँ,नेह चाशनी में पगे शुभकामनाओं के साथ प्रस्तुत है ........
इस होली पर देखिए , कोरोना की मार सूना सूना सा लगे , मस्ती का त्यौहार।
दूर दूर सब ही रहें , गाल हुए ना लाल
रंग लाल पीले हुए , दुख में भरा गुलाल।
है मौसम मधु मास का, खिलें न फूल पलास
कोरोना को देख कर , जंगल हुआ उदास।
होली फिर भी आ गई ,रंग हुये बेताब
सभी लगाते रंग हैं , मुख पर ढंके नकाब।
फागुन के दिन चार हैं , खुशियां आईं द्वार
प्रीत रंग में डूब के , खुद पर कर उप कार।
डॉ चन्द्रावती नागेश्वर
रायपुर छ ग
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जन्माष्टमी
जन्म दिवस गोपाल का, लेकर आया भोर
अंतस में छवि श्याम की , मन आनंद विभोर।
भादों की है अष्टमी , खुशियों की बरसात
देख उजाला जो हुआ , पंछी करते शोर।
चरण पखारे कालिंदी , बाल कृष्ण मुसकाय
पूनम के हैं चाँद प्रभु , यमुना उठे हिलोर।
हर रिश्ते में रस भरें। , मुख मण्डल में तेज
जिधर पड़ें उनके कदम , होवे वहीं अँजोर ।
करें शरारत खूब वो, हैं नटखट नंदलाल
मोहक छवि है कृष्ण की, देखें सब उस ओर।
लीला धर तो श्याम हैं , महिमा बड़ी अपार
शैशव में लीला करें ,बन कर माखन चोर ।
भुवन मोहिनी रूप ले , जग को लिए लुभाय
वश में जिनके विश्व है, राधा चन्द चकोर।
तीन लोक के नाथ जो , जग के पालनहार
गोप ग्वाल के प्रिय सखा, ब्रज के नंद किशोर।
डॉ चन्द्रावती नागेश्वर
रायपुर छग
कृष्ण जन्माष्टमी गीतिका
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प्रणाम भोर का ~
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(छ्न्द तमाल - 16+3,चौपाई +गाल)
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दिवस ढले ,आ जाय घनेरी रात,
दे देना प्रभु एक समुज्ज्वल प्रात।
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दुर्गम पथ पर हैं अनेक अवरोध,
पाहन,पर्वत,बीहड़, प्रबल प्रपात।
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रोक रहे उत्कर्ष विपुल अपकर्ष,
पल-पल,प्रति पग कर जाते हैं घात।
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हों कृपालु परमेश्वर देना छाँव,
अनाहूत यदि हो जाये बरसात।
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शरण आपकी पाना ही है ध्येय,
चलते -चलते थक जाये जब गात।
------- विश्वम्भर शुक्ल
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(छ्न्द तमाल - 16+3)
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