गीतिका ~
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गौर से सुन अब हमें भी सर उठाना आ गया
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आग पर हैं पाँव ,होंठों पर तराना आ गया,
आदमी को आदमी पर मुस्कराना आ गया।
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तोड़ लेना डाल से मत पुष्प कलिका ने कहा,
गौर से सुन अब हमें भी सर उठाना आ गया।
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पादुका पग की नहीं अभिमान है वह शीश की,
आँसुओं की नदी को अब खिल-खिलाना आ गया।
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अब न रोके से रुकेगी वाग्धारा वेग की ,
सँग शिलाओं,पत्थरों के, जल बहाना आ गया।
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मुट्ठियों में कैद हैं अब मौसमी सब आँधियाँ,
लोरियाँ अब चैन की जब से सुनाना आ गया।
--- प्रो.विश्वम्भर शुक्ल
लखनऊ
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मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर नहीं हूँ,
अब किसी आघात को तत्पर नहीं हूँ।
देवता की तरह जो पूजा गया हो ,
माफ करना मित्र, वह पत्थर नही हूँ !
पुष्प जैसा निखरकर बिखरा बहुत मैं,
पर किसी की राह का कंकर नहीं हूँ।
सुधा पीने के मिले अवसर कभी जब,
पिया विष ही किन्तु मै शंकर नहीं हूँ ।
फिर नया अनुबंध लिखकर क्या करोगे,
अमिट स्याही से लिखा अक्षर नहीं हूँ !
स्वत: जन्मी वेदना का स्वयं साक्षी ,
निरर्थक संभावना का स्वर नहीं हूँ।
______ प्रो. विश्वम्भर शुक्ल
लखनऊ
जीवनामृत~
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जिनसे जीवन मिला उन्हें हम वंदन कर लें,
श्रद्धा,नमन, आस्था से अभिनन्दन कर लें,
भक्ति-भाव, अनुरक्ति पूज्य हैं सदा हमारे
पुण्य-पुष्प अर्पित कर मन को चन्दन कर लें !
_______ विश्वम्भर शुक्ल
जीवनामृत~J---=---------=------=---==------
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खुश्बू बिखेरे पुष्प सी ,रस-धार दीजिए ,
रचना की हो पहचान वो रफ़्तार दीजिए,
संकल्प श्रेष्ठ राष्ट्र का,हो सार्थक सृजन ,
अपनी कलम के हाथ मे तलवार दीजिए !
--- प्रो.विश्वम्भर शुक्ल
सुभोर ~
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जिन्दगी निर्मल हँसी है जो तुम्हारी है,
चमक जाती है इक बिजली की तरह,
बाँटती फिरती है रंगों की दुआएँ देखो
फूल पर उड़ती हुई तितली की तरह !
~ विश्वम्भर शुक्ल
सुभोर ~
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मृदुल , कोमल छुअन की अभिव्यंजना अच्छी लगी,
शुभ्र निश्छल प्रेम की परिकल्पना अच्छी लगी ,
छुपी वाणी में मधुर संदेश की जो शब्दिका है ,
सार्थक दिन कर गई , शुभकामना अच्छी लगी ।
----- प्रो.विश्वम्भर शुक्ल
सुभोर~
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प्यार देकर इन्हें पाले रखना,
रिश्ते नाजुक हैं सम्हाले रखना,
जिन्दगी नाम तंग गलियों का
उम्र भर इनमें उजाले रखना !
~ विश्वम्भर शुक्ल
सुभोर~
💝
प्यार देकर इन्हें पाले रखना,
रिश्ते नाजुक हैं सम्हाले रखना,
जिन्दगी नाम तंग गलियों का
उम्र भर इनमें उजाले रखना !
~ विश्वम्भर शुक्ल
वीथिका से एक चित्र ~
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सूख गई थी सोई बगिया आज गई फिर भीज,
लो फिर हरी भरी हो बैठी गजब ज़िंदगी चीज ,
हवा बही ,बादल घिर आये,बदल गया मौसम
फिर से स्वागत को आतुर है यादों की दहलीज !
___ प्रो.विश्वम्भर शुक्
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वसंत वर्णन :---
डाली डाली झूमती, देख बसंत बहार.
फागुन की पदचाप सुन, झूम उठा संसार.
: फागुन आया देख के, वन उपवन गुलजार
है पूनम की रात में, होली का त्यौहार.
महुआ डोरे डालता, टेसू मन मुस्काय
हाला पीये प्रीत का , तितली भ्रमर बयार.
मन बैरागी डोलता, फागुन ही बहकाय
फागुन कहे पुकार के, खुशियों के दिन चार.
नव पल्लव से हैं सजे, वृक्ष लता के देह
खिलती कलियां दे रही, फूलों का उपहार.
पीली चुनरी पहन चली, धरती मन हरषाय
रूप रंग कुछ दिन रहे, आओ कर लें प्यार.
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भावों पर सीवन लगा
देखा चारों ओर,
स्वारथ में डूबी मिली
संबंधों की डोर।
पीड़ा उर में बाँधकर
अधर मढ़ी मुस्कान,
पथ पर अपने बढ़ चली
जीने की ज़िद ठान।
अभी जूझना है मुझे,
बंधन का ये ठोर।
हिय कलसी अमृत भरा
रे मन ले संज्ञान,
अंतस डुबकी ले ज़रा
ये ही पावन स्नान।
नवजीवन के साथ है,
अनुबंधों की भोर।
कर्मभोग ये योग तक
अपना ही ये लेख,
व्यूह रचित ये स्वयं का
अंतर्मन से देख।
मुमुक्ष-मन की चाहना,
प्रबंध बड़े कठोर।
कोकिला अग्रवाल
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शब्द मंथन!!
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प्रभात बेला
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भोर भयी चिड़िया चहकी महकी बगिया कलियां मुस्काती।
सूरज की किरणें धरती पर जीवन ज्योति सदा बिखराती।
वायु सुगंधित डोल रही सबके मन को कितना हरषाती।
शंख बजे घड़ियाल बजे करते सब सुंदर गीत प्रभाती।
जितेन्द्र मिश्र 'भास्वर
बैठ रश्मियों के स्यंदन पर "भोर" सुहानी आई।
ऊर्जा का संचार किया है नव चेतना जगाई।
सरसिज खिले सरोवर
भँवरे गुन-गुन गुन-गुन गाये।
शीतल मदिर पवन तन-मन
को स्पंदित कर जाये।
स्वर्णिम आभा बैठ क्षितिज में मन्द-मन्द मुस्काई।
ऊर्जा------------------------
सुंदर सुखद "विहान" प्रकृति की
सुषुमा हृदय लुभाती।
गूँज रहा है मधुर-मधुर स्वर
खगकुल करें प्रभाती।
खोल यामिनी का अवगुंठन वसुधा ली अँगड़ाई।
ऊर्जा------------------------------
रहो सतत गतिमान कर्म के
पथ पर बढ़ते रहना।
एक लक्ष्य ले बढ़ो प्रगति की
सीढ़ी चढ़ते रहना।
चीर निशा का तिमिर सुबह किरणों ने राह दिखाई।
ऊर्जा-------------------------------
स्वेद बूँद से सींच धरा को
कर देता है नन्दन।
कर्मशील मानव का दुनिया
करती है अभिनन्दन।
मन में यदि विश्वास जिंदगी लगती है सुखदाई।
ऊर्जा का संचार हुआ है नव चेतना जगाई।
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-----सुधा मिश्रा
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