Monday, 6 August 2018

हरि गीतिका ---2

1     जो वीर जन हैं साहसी, कुछ कर गुजरते हैं वही,
     फिर सामने हो आंधियां ,यदि राह में डरते नहीं ।
  यदि मुश्किलें आयें अगर,खुद ही वही झुकती रही ,
सुत साहसी जग मेंअगर, अभिमान करती  यह मही।।


2     ममता मयी प्रतिमा दया ,की स्नेहिनी है वह मही
   उसके लिये कुछ कर्तव्य, हमने अब तक किये नही।
  कुछ तो ऋण उतारें जरा, अभिमान सब हम पर करें
        अब देश की सेवा करें,मां भारती के दुख हरें ।

 

   
3    अब प्रतिबिम्ब बन आदर्श की,सामने तुम बालिके
     तुम इच्छित नही सोच कर, प्रतिकूल थे मन मारिके ।
     मन भावना को तुम छिपा, वन घास सी बढ़ती चली
 श्रम कठिन तुम करती रही,बन दामिनी नभ में खिली।

    

4    : यह देश तो है पर्व का,मन को उमंगित यह करे,
         सद्भावना  सहकरिता  मन में लिये प्रेरित करे।
          यह जिंदगी में रस भरे, आनंद पथ में ले चले  ,
         सद्भावना की बेल में,खुशियाँ बहुत फूलें फले ।
        

5      तुम रूपसी  हो उर्वशी, सौंदर्य की हो स्वामिनी
प्रतिमान नख शिख रूप का ,मृदु भाषिणी रस रागिनी।
     आभा मयी तुम मोहिनी ,घन में दमकती दामिनी
   तुम पूर्णिमा की चांदनी,मन से नमन मनगामिनी ।👌

         ( सौंदर्य 221)
           

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