1 मां शारदे वरदान दे, दुख भंजना सुख कारिणी
मन कलुष हर उजियार कर,तू हृदय गगन विहारिणी।
सुर वंदिता मां भारती ,वागीश वीणा वादिनी
वीणा बजा कर हर्ष दे , मां भगवती वरदायिनी।
2 : वह बाहरी रिपु है नहीं , मन ढूंढ ले मत हारना
वह ढीठ है रहना सजग, उसको सदा ही साधना ।
दो रूप हैं मन के यही,तुम सोचना फिर बोलना
ये ही वकालत भी करे,जज भी यही अब तोलना ।
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3 जिस काम की यदि ठान लें ,निज लक्ष्य से हटते नहीं
पथ कंटकों से पूरित भले, वे कभी टलते नही ।
धुन एक ही रहती सदा , निज लक्ष्य को पाकर रहें
दिन रात करते एक हैं, उसके लिये दुख सब सहें।
4 यह राखियों का पर्व है,जो बांधता सबकी कड़ी
ये सावनी है पूर्णिमा,शुभ दिवस की है शुभ घड़ी ।
यह रिस रहे को रोकती, फिर जोड़ती ,उनको यही
हैं रीतते नित नेह गागर, प्रेम से भर कर रही ।
5 हे भोर के सूरज नमन ,हैं ठंड से व्याकुल सभी
तम से भरी रात काली,हैं धुंधले ये दिवस भी।,
हिम से भरी है शूल सी, चुभती हवा झक झोरती
हे तमस रिपु तुम नहीं तो खुशियां सभी मुख मोड़ती ।
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