1 ये वक्त तो बीते कहाँ, बरसात ही बैरी बनी
जो रूप था मन मोहता,उससे हमारी अब ठनी।
सोचे सभी हैं आज सब ,किस भूल की है यह सजा
रोके हमीं बहती नदी,तब नहीं ली उसकी रजा ।
2 ताहो नगर की सैर को,हम लोग पहुंचे शाम को
नमन के तट पर गये, देखा वहां जल धाम को।
वह मौन सी मन भावनी ,बाहें पसारे सोचती
अनुपम छटा के साथ में, हँस भानु को मोहती ।
3 वन में झरें झरने कई,नदियाँ करें कल कल यहाँ
इस झील में उतरे गगन,सौंदर्य है अनुपम जहाँ ।
पहरा करें है अनगिनत ,सैनिक बने तरुवर खड़े
वो पेड़ भाले सम लगे,हैं कोणवत ऊँचे बड़े।
4 मत रोक धारा सरित की ,है चाहती वह मचलना
लग के गले वह भूमि के, रह संग में फिर उमड़ना।
पर्वत सुता वह तो सदा ,नीरा सभी के दुख हरे
हर जीव के संताप हर, तन मन यही शीतल करे।
5 जब गोद मे मां के तभी, तक भा रहा यह जग जिसे
वह तरसता तेरे बिना ,दिल की तड़प कहता किसे।
आंचल नहीं फिर भी छुवन, ही कम नहीं शिशु के लिये
ममता वही तो है लुटा ,तीरथ यही जिसके लिये।
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