1: प्रेम बड़ा होता है अद्भुत,महिमा इसकी अपरम्पार
रूप निराला होता इसका, देकर दर्द करे उपचार ।
2 सोने चांदी के आभूषण,पहने जो रुतबा बढ़ जाय
सद्गुण ऐसा गहना है जो,सबके दिल में घर कर जाय ।
3 जागो देश प्रेमियों अब तो,दुश्मन बैठा घात लगाय
घेर के मारो लाश बिछा दो,एक भी शत्रु भाग न पाय।
4 बीत गया है रितु वसन्तअब,सूरज करताआंखे लाल
नदी ताल सब सूख गये हैं,गर्मी से हैं सब बेहाल।
5 भर दुपहर में है सन्नाटा, उमस तपन से हैं बेजार
कट गए पेड़ नहीं है छांव, पेड़ लगाओ हो उपकार।
6 जिनके इरादे नेक रहते,मन में रखें नहीं अभिमान
लक्ष्य ले कर बढ़ते रहें तो,जग में पाते हैं यश मान ।
7 भा जाता है कोई मन को,तब दिल में पलता है प्रीत
छवि उसकी नैनो में बसती बन जाता है वह मन मीत।
8 साथी मेरे हर दिन करना, केवल राम नाम का जाप
एक वही तो है सबका जो,दूर करे जीवन सन्ताप ।
जीव मात्र से करना प्रेम,सोच के देखो सबमे राम
जीवन अपना सफल बना लो,करना पर हित का ही काम।
10 रोज सबेरे आकर सूरज ,सारे जग में करे प्रकाश
पूरब का है रूप निराला,स्वर्ण लुटाता है आकाश ।
डॉ चंद्रावती नागेश्वर
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सभी स्नेही साथियों को सस्नेह ये समर्पित है ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
डगर डगर शहर शहर चल पड़ी ये लेखनी
. दे रही है प्रीत का संदेश ये लेखनी .........
दूर कर भेद मन के हर दिलों को जोड़ती
देश में विदेश में झूमती चली ये लेखनी ।
हम कहाँ तुम कहाँ जानते नहीं थे कभी
साथ सबको ले के जा रही ये लेखनी ...........
भावना की धार है शब्दों की नाव है
पतवार बनके पार ये लगा रही ये लेखनी ..........
भोर में विभोर कर यामिनी में स्वप्न बन
मन में चाहतें भी जगा रही ये लेखनी ..........
गीत गजल काव्य के लोक में पंछियों सी
नभ के अंक में चहचहाती जा रही ये लेखनी........
भावना के सिंधु में शब्दों का उफान ले
पतवार बन के पार ये लगा रही है लेखनी
डा .चन्द्रावती नागेश्वर ,वेन्कुअर [कनाडा]
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भोर की किरणें
1222 1222 1222
किवाड़ों की दरारों से चमकती है
इशारे से जगाती है फिर झिझकती।
सजाती हर कण उजालों से धरा का वह
पलक खुलती नहीं तब वह बिफरती है।
चहक जाते विहग नन्हें खुशी से नाचें
हवा हर फूल को छू कर महकती हैं।
गगन पथ पर बटोही बढ़ चला अब तो
तभी कोयल मधुर स्वर में चहकती है।
उठो प्यारे सृजन की है घड़ी आई
फिजां में जोश की लहरें किलकती है।
उठाओ लेखनी हिम खण्ड पिघला दो
लहू में उफनती लहरें मचलती हैं ।
डॉ चन्द्रावती नागेश्वर
दिनांक 7 ,10 2021
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प्रणाम भोर का ~
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(छ्न्द तमाल - 16+3,चौपाई +गाल)
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दिवस ढले ,आ जाय घनेरी रात,
दे देना प्रभु एक समुज्ज्वल प्रात।
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दुर्गम पथ पर हैं अनेक अवरोध,
पाहन,पर्वत,बीहड़, प्रबल प्रपात।
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रोक रहे उत्कर्ष विपुल अपकर्ष,
पल-पल,प्रति पग कर जाते हैं घात।
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हों कृपालु परमेश्वर देना छाँव,
अनाहूत यदि हो जाये बरसात।
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शरण आपकी पाना ही है ध्येय,
चलते -चलते थक जाये जब गात।
------- विश्वम्भर शुक्ल
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सूर्यास्त के समय सागर के किनारे एक अकेली नाव और आसमान की परछाई को देख कर मन में आया यह विचार..
नाव चली सागर के पार
एक अकेले हमीं सवार.
बिन माँझी के है ये नाव
कौन लगाए इसको पार.
जग यह सारा लगे असार
सारे जग के पालनहार.
राह दिखा दो कृपा निधान
तेरी लीला अपरंपार.
सागर का इतना विस्तार
जल क्रीड़ा का चढ़ा खुमार.
उतरा अंबर करने स्नान
सिमटा उसका ही आकार.
मोहक छवि हम रहे निहार
लेकर मन में हर्ष अपार.
स्वर्ण सुमन से भरकर थाल
सागर भी करते आभार.
ड चंद्रावती नागेश्वर
रायपुर, छत्तीसगढ़
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