मुक्तक लोक <> ~ चित्र मंथन समारोह - 259
बुधवार,दिनांक - 29/05/2019
सोच रही मैं,
क्या क्या लिख दूं
रंग रंग की ,स्याही से मैं
मन मोहक कुछ,
पुष्प सजा दूं
मनः अश्व की,करूँ सवारी
दूर गगन तक
एड़ लगा लूँ
बाहों में भर ,सारे सपने
सभी दिशा में
मैं बिखरा दूँ
लिए हाथ में ,कलम की कश्ती
बड़े यत्न से
भाव लहर पर
डगमग करते ,पार मैं जाऊं
रेत कणों की
नम शैय्या पर
आनंदित मन,आंखे मीचे
रहूँ बैठ कर
दीर्घ काल तक
हो कर मैं निःशब्द .....
डॉ चन्द्रावती नागेश्वर
कोरबा छ ग
चित्र मंथन समारोह- २६१
मंच को सादर समर्पित
हँसते हँसते घूंघट कभी उठाती हैं
चलते चलते जाने क्या दिखाती हैं।
सांझ ढले चली इशारे करती घर से
बजे चूड़ियां या पैंजनी बजाती हैं ।
लाल हरे नीले पीले कपड़े पहने
मन की बातें करने ये आ जाती हैं।
तनिक सही पर खुश हो लेतीं बेचारी
बातें करके धीमे से मुस्काती हैं।
बंदिश में रहके कुछ देर सही हँस लेती
खुली हवामें कुछ सांसे ये ले पाती हैं ।
डॉ चन्द्रावती नागेश्वर
कोरबा छ ग
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