बाप बन गया हूँ---------
सुबह से माँ का बिस्तर से उठना
कर बद्ध हो कर माथा झुकाना
धीरे से सरकी चादर ओढ़ाना
कोयला तोड़ कर सिगड़ी जलाना
हमारे उठने से पहले बर्तन मांजना
गर्मागर्म पराठे बनाना
आलू की भुंजिया बनाना
हमको जगाकर तैयार करना
बड़े मनुहार से हमको खिलाना
बस्ता उठाकर स्कूल पहुंचाना
हमारे आने से पहले खाना बनाना
घर के अगणित काम निपटाना
खुद भी तैयार हो कर पढ़ाने को जाना
शाम को हमारी पसंद का नाश्ता खिलाना
नियम से हमारा होमवर्क कराना
यूनिट टेस्ट की तैयारी कराना
सब्जी काटते हुए प्रश्नोत्तर रटाना
रोटी बनाते हुए कहानी सुनाना
गुनगुनाते हुए थपकी देकर सुलाना
बिस्तर में बैठ कर रजिस्टर बनाना
स्कुल के बच्चों की कापी जांचना
इसी क्रम में पता ही नही चला
हम कब बड़े हो कर बारहवीं निकले
दुसरे शहर में उच्च शिक्षा को गये
रोती थी छुप छुपके कमजोर न हो हम
हमे बहादुर बनाने बहादुरी दिखाती रही
कुम्हार सी हमको पल पल तू गढ़ती रही
तेरे तप और त्याग को हमने पहचाना नही
तेरे अवदान प्यार को हमने जाना नही
होता है कितना कठिन मातृत्व धर्म
एकल माँ बनकर पिता के सहयोग बिना
माँ बस तू ही कर सकती है दुष्कर काम
कोटि कोटि नमन माँ तुझे प्रणाम
सच माँ तूने ध्यान न दिया होता तो
आज हम भी आवारा घूमते रहते
पता नही रिक्शा चलाते या सब्जी बेचते
ऊँगली पकड़ कर चलना सिखाया
हाथ पकड़कर क ,ख ग लिखना सिखाया
कभी बोल कर कभी चुप रह कर
दुनिया दारी बहुत कुछ सिखाया
हमने तो सीखा वही जो हमारे मन भाया
अब मै बाप बन गया हूँ माँ
देखता हूँ बच्चे का मुस्कुराना
पल पल तेरी यादआती है माँ
नया रूप धर कर है आ गया
माँ बेटे का रिश्ता पुराना
डॉ चन्द्रावती नागेश्वर
कोरबा छ ग
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एक दिन बैठी उदास
कह उठी मुझसे घांस
क्यों बैठीहो चुप चुप
रोती क्यों हो छुप छुप
मुझको देखो जरा
मुझसे सीखो भला
उग आती हूँ अपने आप
बढ़तीहूँ ,फैलती फूलती हूँ
जो चाहे रौंद जाता उखाड़ देता
फिर भी नहीं घबराती हूँ
घोड़े सी एड़ लगा कर
छप्पर पर चढ़ जाती हूँ
दीवार पर ,छत पर
जहां मिली जगह
अपनी जड़ें जमाती हू
रात की रानी खुश हो कर
मेरे मस्तक पर
मोती रख जाता है
सुबह जिसे किरणें
अपने आँचल में
भर ले जाती हैं
तुम हो बेटी की जात
घास फूस सी बढ़ती हो
सृजन दूत बनती हो
गोद में तेरे मानव पलता है
जीवन का क्रम चलता है
जग को स्वर्ग बनाती
बनो नहीं कर्तव्य विमुख
रहता नत मस्तक
विधाता भी तेरे सम्मुख
डॉ चन्द्रावती नागेश्वर
सेंटा क्लारा
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वामांगी नहीं है नारी। :--
कवि बिहारी की कविता
मन में खलबली मचा गई
मेरी कल्पना को जगा गई
कहा -भाल पर अंकित बिन्दी
मुख सौंदर्य कई गुना बढा गई
शून्य आकार की बिंदी
सबके मन को भा गई
पुरुष प्रधान समाज में
नारी आज भी क्यों
रखी जाती है हाशिये में
सर्व ज्ञात है पूर्णता देता है
शून्य सदा अंक के दाहिने में
तन बल,बुद्धि बल,कार्य कौशल
हर क्षेत्र में पुरुषों से कहीं भी
पीछे रहती नहीं है नारी
पुरुषों के अहम पर , पड़ती हैं भारी
ठीक है मिलती यदि उन्हें ,इसी से संतुष्टि
तो ढूंढ लेते हैं हम भी इसी में अपनी ख़ुशी
क्योंकि हम नहीं है उनकी प्रतियोगी
हम तो सृजन में हैं सहचरी सखी सहयोगी
पर न भूलो मूल्य इस शून्य का
बढ़ाती हमी जीवन में महत्व पुरुष का
पुरुष यदि अंक है एक या नौ का
हम वही शून्य हैं बिना जिसके
मिल सकती नहीं उन्हें पूर्णता
आज हम है उसके दक्षिणांगी
बिना शक्ति अर्धनारीश्वर शिव अधूरे
राधा बिना कृष्ण भी हैआधा
प्रिया प्रभु राम की हैं जानकी
बिन नारी सृष्टि में सर्वत्र होगी शून्यता
मिले सृजन को नारी से ही निरन्तरता
डॉ चन्द्रावती नागेश्वर
शंकर नगर
रायपुर छ ग
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उम्र अब अपना असर दिखाने लगी है
दगाबाज दर्पण सच्चाई दिखाने लगी है
दांत और आंत की जुर्रत तो देखिये
सरे आम मुंह चिढ़ाने लगी है
घुटने भी अब तो टेकने
टिकाने से कतराने लगे हैं
उंगलियां जो नाचती थी सबको
खुद ही थिरकने लगी हैं
श्यामल केशों में चांदी इतराने लगी है
ये तो वक्त वक्त की बात है दोस्तों
नींद भी अब आंखें चुराने लगी है
डॉचंद्रावती नागेश्वर
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तिल है छोटा सा
माथे पर सज जाये तो
तिलक बन जाता है
ललाट की दिव्यता
ये बढ़ाता है
ओज पूर्ण कर जाता है
गुड से मिल कर
सर्दी मिटाता है
ऊर्जा बढ़ाता है
दवा भी बन जाता है
तिल से होता तर्पण
हवन और पूजन
सबमें काम बहुत आता है
तेल निकल जाता है
मानव भी काम
अनूठा करता है
बातों ही बातों में
तिल का ताड
बनाता है
छोटी सी समस्या को
पहाड़ बताता है
प्रेम सद्भाव का मार्ग छोड़
अहंकार अपनाता है
डॉ चन्द्रावती नागेश्वर
सेंटा क्लारा u s
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तुलसी से पावन घर आँगन
हरी भरी लगती मन भावन
वरदानी है लक्ष्मी स्वरूपा
ओंकार धारिणी विष्णु प्रिया
हम धूप दीप दे सीस नवाते
श्रद्धा से नित जल भी चढ़ाते
हानिकारी जंतु दूर भगावे
ज्वर जुकाम निकट न आवे
पंच पत्र निराहार जो नित लेवे
रोग निवारक शक्ति पावे
बीज देह को बलिष्ट बनावे
पौधा सूखे जप माला बन जावे
तुलसी ही वृन्दावन कहलावे
डॉ चन्द्रावती नागेश्वर
सेंटा क्लारा u s a
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याद आती है मुझे भी पीहर की------
याद बहुत आता है भाई
क्या याद तुझे मैं भीआई।
चाह नहीं थी कभी शगुन की
मात पिता छवि तुमने पाई ।
तुममे देखा पीहर मैंने
सालों साल निभाया मैने
बांध हाथ में तेरे राखी ।
पीहर सा सुख पाया मैंने
गुल्लक तोड़ खरीदा राखी ।
दूजे को बंधी नहीं राखी
बड़ी बहन हूँ प्यार लुटाती
अनमोल बहुत है ये राखी
भाव भूमि में तेरा हिस्सा
सदियों का है ये ही किस्सा।
तू भी तो अब चला परदेश
नहीं मुझे कोई प्यारा तुमसा।
बचपन में मैं समझ न पाया
रिश्ता सिर्फ तुमने निभाया।
मांगो जो चाहो तुम बहना
राखी का शगुन नहीं दे पाया।
बेचो मत घर बार अभी तो
शायद लौटा सके तभी तो।
इसमें बसी याद बचपन की
इस मिट्टी की चाह कभी तो।
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सिर्फ यही गूंजता कान में
सब कुछ है तेरा मैं पराई ।
दिया तुझे मैंने सदा शगुन
अकेले ही रिश्ता राखी का ।
लिख चिट्ठी कुशल क्षेम लेती
गहनों में मांगा नही हिस्सा।
पिता की सम्पत्ति नाम तेरे
लिख स्टाम्प पर तुझे दिया।
मन के कोने में चाहत यही
देहरी पीहर की झांक आऊं
मन कहे धूल इसकी चूम लूं
बचपन में खेल खेल में रोपा
जिन पेड़ों को हम दोनो ने
उनसे लिपट कर ही रो लेती
राखी से उन्हें सजा देती .....
डॉ चन्द्रावती नागेश्वर
रायपुर छ ग
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सभी तीज व्रत धारिणी बहनो का शुभ स्वागत है।शुभकामनाएं हैं ....
आप सबको समर्पित है एक अतुकांत
रचना ---- डॉ चन्द्रावती नागेश्वर
मनाएं तीज का उत्सव
व्रती जो नारियाँ सारी।
निखरता रूप है इनका
नए गहने नई सारी ।
सुहागन हों यही चाहें
विनय मन में करें शिव से।
बने दीर्घायु पति इनके
हृदय से कामना करते।
भरा है मांग भर कुमकुम
लगे दुल्हन सी सजीली ये।
कठिन व्रत है बहुत इनका
तभी यम पर पड़ें भारी ।
लगे न नजर बलाओं की
सदा यह कामना करते ।
अखण्ड रहे सुहाग तुम्हारा
करें स्वीकार मन भाव हमारा।
डॉ चन्द्रावती नागेश्वर
रायपुर
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